विप्र जन्म इन जूवैं हारयौ। कहें तैं तुम हमें निवारयौ?
गननि कह्यौ, इन नाम उचारयौ। नाम महातम तुम न बिचारयौ।
जान-अजान नाम जो लेइ। हरि बैकुंठ-वास तिहिं देह।
बिन जानैं कोउ औषध खाइ। ताकौ रोग सकल नसि जाइ।
त्यौं जो हरि बिन जानैं कहै। तातकाल सौ ताकौं दहैं।
दोइ पुरुष कौ नाम इक होइ। एक पुरुष कौं बोलै कोइ।
दोऊ ताकी ओर निहारैं। हरिहू ऐसैं भाव विचारैं।
हाँसी मैं कोउ नाम उचारे। हरि जू ताकौं सत्य बिचारै।
भयहूँ करि कोउ लेइ जो नाम। हरि जू देहि ताहि निज-धाम।
जा बन केहरि-सब्द सुनाइ। ता बन तैं मृग जाहिं पराइ।
नाम सुनत त्यौं पाप पराहिं। पापी हू बैकुंठ सिधाहिं।
यह सुनि दूत चले खिसियाइ। कह्यौ तिन धर्मराज सौं जाइ।
अब लौं हम तुमहीं कौं जानत। तुमहीं कौ दँड-दाता मानत।
आजु गह्यौ हम पापी एक। तिन भय मान्यौ हमकौ देख।
नारायन सुत-हेतु उचारयौ। पुरुष चतुरभुज हमै निवारयौ।