ऊधौ जब व्रज पहुँचे जाइ।
तबकी कथा कृपा करि कहियै, हम सुनिहै मन लाइ।।
बाबा नद जसोदा मैया, मिले कौन हित आइ ?
कबहूँ सुरति करत माखन की, किधौ रहे बिसराइ।।
गोप सखा दधिभात खात बन, अरु चाखते चखाइ।
गऊ वच्छ मुरली सुनि उमडत, अब जु रहत किहि भाइ।
गोपिन गृह व्यवहार बिसारे, मुख सन्मुख सुख पाइ।
पलक ओट निमि पर अनखाती, यह दुख कहाँ समाइ।।
एक सखी उनमै जो राधा, लेति मनहि जु चुराइ।
‘सूर’ स्याम यह बार बार कहि, मनही मन पछिताइ।।4096।।