कथा पुरंजन की अब कहौं -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल
पुरंजन कथा



 
हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करो। हरि-चरनारबिंद उर धरौ।
कथा पुरंजन की अब कहौं। तेरे सब संदेहनि दहौं।
प्राचीनबहिं भूप इक भए। आयु प्रजत जज्ञ तिन ठए।
ताकैं मन उपजी तब ग्लानि। मैं कीन्ही बहु जिय की हानि।
यह मम दोष कौन विधि टरै। ऐसी भाँति सोच मन करै।
इहि अंतर नारद तहँ आए। नृप सौं यौं कहि बचन सुनाए।
मैं अबहीं सुरपुर तैं आयौ। मग मैं अद्भुत चरित लखायौ।
जज्ञ माहिं तुम पसु जे मारे। ते सब ठाढ़े सस्त्रनि धारें।
जोहत हैं वे पंथ तिहारो। अब तुम अपनौ आप सँभानौ।
नृप कह्यौ, मैं ऐसोई कियौ। जज्ञ-काज मैं तिनि दुःख दियौ।
रसनाहू कौ कारज सारयौ। मैं यौं अपनौ काज बिगारयौ।
अब मैं यहै बिनै उच्चरौं। जो कछु आज्ञा होइ सो करौं।
कह्यौ,कहौं इक नृप की कथा। उन जो कियौ, करौ तुम तथा।
ताहि सुनौ तुम भलैं प्रकार। पुनि मन मैं देखौ जु विचार।
ता नृप कौ परमातम मित्र। इक छिन रहत न सो अन्यत्र।
खान-पान सो सब पहुँचावै। पै नृप तासौं हित न लगावै।
नृप चौरासी लछ फिरि आयौ। तब इहि पुर मानुष तन पायौ।
पुर कौं देखि परम सुख लह्यौ। रानी सौं मिलाप तहँ भयौ।
तिन पूछयौ, तू काकी धीहै? उन कह्ये नहिं सुमिरन मम ही है।
पुन कह्यौ नाम कहा है तेरौं? कह्यौ, न आव नाम मोहिं मेरौ।
तन पुर, जीव पुरंजन राव। कुमति तासु रानी कौ नाँव।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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