कान्ह कुंवर की करहु पासनी, कछु दिन घटि षट मास गए।
नंद महर यह सुनि पुलकित जिय, हरि अनप्रासन जोग भए।
बिप्र बुलाइ नाम लै बुझयौ, रासि सोधि इक सुदिन धरयौ।
आछौ दिन सुनि महरि जसोदा, सखिनि बोलि सुभ गान करयौ।
जुबति महरि कौं गारी गावतिं, और महर कौ नाम लिए।
ब्रज घर-घर आनंद बढ़यौ अति, प्रेम पुलक न समात हिए।
जाकौं नेति नेति स्रुति गावत, ध्यावत सुर-मुनि ध्यान धरे।
सूरदास तिहिं कौं ब्रज-बनिता, झकझोरतिं उर अंक भरे।।88।।