आजु कान्ह करिहैं अनप्रासन -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



आजु कान्ह करिहैं अनप्रासन।
मनि-कंचन के थार भराए, भाँति-भाँति के बासन।
नंद-घरनि ब्रज-वधू बुलाई, जे सब अपनी पाँति।
कोउ ज्यौनार करति, कोउ घृत-पक, षटरस के बहु भाँति।
बहुत प्रकार किए सब व्यंजन, अमित करन मिष्ठान।
अति उज्ज्वल-कोमल-सुठि-सुंदर, देखि महरि मन मान।
जसुमति नंदहिं बोलि कह्यौ तब, महर, बुलावहु जाति।
आपु गए नँद सकल-महर-घर लै आए सब ज्ञाति।
आदर करि बैठाइ सबनि कौं, भीतर गए नंदराइ।
जसुमति उबटि न्हवाइ कान्ही कौं, पट-भूषन पहिराइ।
तन झंगुली, सिर लाल चौतनी, चूरा दुहुँ कर-पाइ।
बार-बार मुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि लेति बलाइ।
घरी जानि सुत-मुख-जुठरावन नँद बैठे लै गोद।
महर बोलि बैठारि मंडली, आनँद करत बिनोद।
कनक-थार भरि खीर धरी लै, तापर घृत-मधु नाइ।
नँद लै-लै हरि मुख जुठरावत, नारि उठीं सब गाइ।
षटरस के परकार जहाँ लगि, लै लै अधर छुवावत।
बिस्वंभर जगदीस जगत-गुरु परसत मुख करुवावत।
तनक-तनक जल अधर पोंछि कै जसुमति पै पहुँचाए।
हरषवंत जुवती सब लै-लै, मुख चूमतिं उर लाए।
महर गोप सबही मिलि बैठे, पनवारे परसाए।
भोजन करत अधिक रुचि उपजी, जो जाकैं मन भाए।
इहिं बिधि सुख बिलसत ब्रजबासी, धनि गोकुल नर-नारी।
नंद-सुवन को या छबि ऊपर, सूरदास बलिहारी।।89।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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