हरि जु सौं अब मैं कहा कहौं ?
प्रभु अंतरजामी सब जानत, हौं सुनि सोचि रहौं।
आयसु दियौ, जाउ वदरीबन, कहैं सो कियौ चहौं।
तन-मन-बुधि जड़ देह दथानिधि, क्यौं करि लैं निबहौं ?
अपनी करिन बिचारि गुसाइँ, काहे न तूल सहौं।
मैं इहिं ज्ञान ठगीं ब्रजवनिता, दियौ सु क्यौं न लहौं ?
प्रगट पाप संताप-सूर अब, कापर हठै गहौं ?
और इहाँउ बिवेक-अगिनि के बिरह-बिपाक दहौं।। 2।।