हरि निकट सुभट दंतवक्र आयौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू
दंतवक्रवध



हरि निकट सुभट दंतवक्र आयौ।
कह्यौ सिसुपाल तुम राजसू मैं हत्यौ, धन्य सोइ हेत मैं दरस पायौ।।
मरत तुम हाथ ससै नहीं कछु हमैं, दोउ बिधि आहिं प्रभु हित हमारै।
जिऐ तौ राजसुख भोग पावै जगत, मुऐं निरबान निरखत तुम्हारे।।
बहुरि लै गदा परहार कियौ स्याम पर, लग्यौ ज्यौ लगै अबुज पहारै।
हरि गदा लगत गए प्रान ताके निकसि, बहुरि हरि निज बदन माहिं धारे।।
अनुज ताकौ विदूरथ लग्यौ फिरन पुनि, चक्र सौ सीस ताकौ प्रहारयौ।
‘सूर’ प्रभु जुद्ध निरखि भयौ मुनि जन हरष, सुर पुहुप बरषि जै जै उपारयौ।। 4222 ।।

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