बन-बन फिरत चारत धेनु।
स्याम हलधर संग सँग बहु गोप-बालक-सेनु।
तृषित भए सब जानि मोहन, सखनि टेरत बेनु।
बोलि ल्यावहु सुरभि-गन, सब चलौ जमुन-जल देनु।
सुनत ही सब हाँकि ल्याए, गाइ करि इक ठैन।
हेरि दै-दै ग्वाल-बालक, कियौ जमुन-तट गैन।
बकासुर रचि रूप माया, रह्यौ छल करि आइ।
चोंच इक पुहुमी लगाई, इक अकास समाइ।
आगै बालक जात हे ते पाछैँ आए धाइ।
स्याम सौं वै कहन लागे, आगैं एक बलाइ।
नितहिं आवत सुरभि लीन्हे, ग्वाल गो-सुत संग।
कबहुँ नहिं इहिं भाँति देख्यौ आजु कैसौ रंग।
मनहिं मन तब कृष्न भाष्यौ, यह बकासुर अंग।
चोंच फारि बिदारि डारौं, पलक मैं करौं भंग।
निदरि चले गोपाल आगैं, बकासुर कैं पास।