गोविंद कोपि चक्र कर लीन्हौं।
छाँड़ि अापनो प्रन जादवपति, जन कौ भायो कीन्हौ।
रथ तैं उतरि अवनि आतुर ह्वै, चले च अति धाए।
मनु संचित भू-भार उतारन, चपल भए अकुलाए !
कछुक अंग तै उड़त पीतपट, उन्नत बाहु बिसाल।
स्त्रवत स्त्रोनकन, तन-सोभा, छवि-घन बरसात मनु लाल।
सूर सु भुजा समेत सुदरसन देखि बिरंचि भ्रम्यौ।
मानौ आन सृष्टि करियै कौं, अंबुज नाभि जम्यौ।।।273।।