द्विविध करि क्रोध हरि पुरी आयौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू
द्विबिधवध



द्विविध करि क्रोध हरि पुरी आयौ।
नृप सुदच्छिन जरयौ, जरी वारानसी, धाइ धावन जबै कहि सुनायौ।।
द्वारिका माहि उतपात बहु भाँति करि, बहुरि रैवत अंचल ग़यौ धाई।
तहाँ हूँ देखि बलराम की सभा कौ, करन लाग्यौ निडर ह्वै ढिठाई।।
लख्यौ बलराम यह सुभट बलवंत कोउ, हल मुसल सस्त्र अपनी सँभारयौ।
द्विविध लै साल कौ बृच्छ सनमुख भयौ, फुरति करि राम तन फटकि मारयौ।।
राम हल मारि सो बृच्छ चुरकुट कियौ द्विविध सिर फूटि ग़यौ लगत ताकै।
बहुरि तरु तोरि पाषन फेंकन लग्यौ, बल मुसल करत परहार बाकै।।
बृच्छ पाषान कौ नास जब ह्याँ भयौ, मुष्टिका जुद्ध दोऊ प्रचारी।
राम मुष्टिक लगै गिरयौ सो धरनि पर, निकसि गए प्रान सुधि बुधि बिसारी।।
सुरनि आकास तै पुहुप बरषा करी, करि नमस्कार जै जै उचारे।
देवता गए सब आपने लोक कौ, ‘सूर’ प्रभु राम निज पुर सिधारे।। 4208।।

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