सूर सुमिरि हरि-हरि दिन-रात -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

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राग बिलाबल
महिमा



हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोइ। हरि हरि सूमिरत सब सूख होइ।
हरि-समान द्वितिया नहिं कोइ। स्रुति-सुभ्रिति देख्यौत सब जोइ।
हरि हरि सुमिरत होइ सु होइ। हरि चरननि चित राखौ गोइ।
बिनु हरि सुमिरन मुक्ति न होइ। कोटि उपाइ करौ जौ कोइ।
हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोइ। हरि सुमिरै तैं सब सुख हौइ।
सत्रु-मित्र हरि गनत न दोइ। जो सुभिरै ताकी गति होइ।
हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोइ। हरि के गुन गावत सब लोइ।
राव-रंक हरि गनत न दोइ। जो गावहि ताकी गति होइ।
हरि हरि हरि सुमिरौ सब होइ। हरि सुमिरे तैं सब सुख होइ।
हरि हरि हरि सुमिरयौ जो जहाँ। हरि तिहिं दरसन दीन्हौं तहाँ।
हरि बिनु सुख नहिं इहाँ न उहाँ। हरि हरि हरि सुमिरौ जहँ तहाँ।
सौ बातनि की एकै बात। सूर सुमिरि हरि-हरि दिन-रात।।5।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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