नटवर-वेष धरे ब्रज आवत।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, कुटिल अलक मुख पर छबि पावत।।
भ्रकुटी बिकट नैन अति चंचल इहिं छबि पर उपमा इक धावत।
धनुष देखि खंजन बिवि डरपत, उड़ि न सकत उड़िबै अकुलात।।
अधर अनूप मुरलि-सुर पूरत, गौरी राग अलापि बजावत।
सुरभी-बृंद गोप-बालक-संग, गावत अति आंनद बढा़वत।।
कनक-मेखला कटि पीतांबर, निर्तत मंद-मंद सुर गावत।
सूर स्याम प्रति-अंग-माधुरी, निरखन ब्रज-जन के मन भावत।।1368।।