हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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जनक श्रुतदेव और श्रीकृष्ण मिलाप


हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोइ। राव, रंक हरि गिनत न कोइ।।
जो सुमिरे ताकी गति होइ। हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोइ।।
श्रुतदेव ब्राह्मन सुमिरयौ हरी। ताकी भक्ति हृदै हरि धरी।।
राज जनक हरि सुमिरन कीनौ। हरि जू सोउ हृदै धरि लीनौ।।
तब हरि रिषि बहुतक सँग लए। तिनके देस प्रीति बस गए।।
द्वै स्वरूप धरि दुहुँ कौ मिले। तोषि तिन्हे पुनि निजपुर चले।।
हरि जू कौ यह सहज सुभाउ। रंक होइ भावै कोउ राउ।।
जो हित करै ताहि हित करै। ‘सूरज’ प्रभु नहि अंतर धरै।। 4305।।

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