नृपति रहूगन कैं मन आई -सूरदास

सूरसागर

पंचम स्कन्ध

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राग बिलावल
जड़भरत-रहूगण-संवाद



हरि-हरि, हरि-हरि, सुमिरन करौ। हरि चरनारविंद उर धरौ।
नृपति रहूगन कैं मन आई। सुनियै ज्ञान कपिल सौं जाई।
चढि़ सुख-आसन-नृपति सिधायौ। तहाँ कहार एक दुख पायौ।
भरत पंथ पर देख्यौ खरौ। वाकैं बदले ताकौं धरौ।
तिहिं सौं भरत कछू नहिं कह्यौ। सुख-रासन काँधे पर गह्यौ।
भरत चलै पथ निजीव हार। चखै नहीं ज्यौं चलैं कहार।
नृपति कह्यौ मारग सम आह। चलत न क्यौं तुम सूधै राह।
कह्यौ कहारिन, हमैं न खोरि। नयौ कहार चलत पग झोरि।
कहौ नृपति, मौटो तू आहि। बहुत पंथहू आयौ नाहिं।
तू जो टेढ़ौ-टेढ़ौ चलत। मरिबे कौं नहिं हिय भय धरत।
ऐसी भाँति नृपति बहु भाषी। सुनि जड़भरत हृदय महँ राखी।
मन मन लाग्यौ करन विचार। हर्ष-सोक तनु कौ व्यवहार।
जैसी करै सौ तैसी लहै। सदा आतमा न्यारी रहै।
नृप कह्मौ, मैं उत्तर नहिं पायौ। मेरौ कह्यौ न मन मैं ल्यायी।
नृप-दिसि वैखि भरत मुसुकाइ। बहुरौ या विधि कह्यौ समुझाइ।
तुम कह्यौ, तैं है बहुत मोटायौ। शरु बहु मारग हू नहिं आऔ।
टेढ़ौ-टेढ़ौ तू क्यौं जात। सुनी नृपति, मोसौं यह वात।
जिय करि कर्म, जन्म बहु पावै। फिरत-फिरत बहुतै स्रम आवै।
अरु अजहू न कर्म परिहरे। जातैं याकौ फिरबौ टरै।
तन स्थूल अरु दूवर होइ। परमातम कौं ये नहिं दोइ।
तनुमिथ्या, छन-भंगुर जानौ। चेतन जीव, सदा थिर मानौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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