कैसैं करि आवत स्याम इती।
मन, क्रम, बचन और नहिं मेरे, पदरज त्यागि हिती।।
अंतरजामी यही न जानत, जो मो उरहि विती।
ज्यौ जुवारि रसबीधि हारि गथ, सोचत पटकि चिती।।
रहत अवज्ञा होइ गोसाईं, चलत न दुखहिं मिती।
क्यौ बिस्वास करहिगौ कौरौ, सुनि प्रभु कठिन कृती।।
इतर नृपति जिहि उचित निकट करि देत न मूठी रिती।
छुटत न अंसु सु नितहि कृपन कैं, प्रीति न ‘सूर’ रिती।। 1।।