ग्वालिनि तुम कत उरहन देहु?
पूछहु जाइ स्याम सुंदर कौं, जिहिं दूख जुरयौ सनेहु।।
जन्मत ही तैं भई बिरत चित, तज्यौ गाउँ, गुन गेहु।
एकहि पाउँ रही हौं ठाढ़ी, हिम-ग्रीषम-ॠतु मेहु।।
तज्यौ मूल साखा-सुपत्र सब, सोच सुखानी देहु।
अगिनी सुलाकत मुरयौ न तन-मन, बिकट बनावत बेहु।।
बकतीं कहा बांसुरी कहि-कहि, करि-करि तामस तेहु।
सूर स्याम इहिं भाँति रिझै, किनि, तुमहुँ अधर रस लेहु।।1330।।