हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारबिंद उर धरौ।
ब्यास-जनम भयौ जा परकार। कहौं सो कथा सुनौं चित्त धार।
सत्यवती मच्छोदरि नारी। गंगा-तट ठाढी सुकुमारी।
तहाँ परासर रिषि चलि आए। विवस होइ तिहिं कैं मद छाए।
रिषि कह्यौ ताहि, दान-रति देहि। मैं बर देहुँ तोहिं सो लेहि।
तू कुमारिका बहुरौ होइ। तोकौं नाम धरै नहिं कोइ।
मेरौ कह्यौ न जौ तू किरै। दैहौं साप महा दुख भरै।
सत्यवती सराप-भय मान। रिषि कौ वचन कियौ परमान।
जोजनगंधा काया करी। मच्छ—बास ताकी सब हरी।
ब्यासदेव ताकैं सुत भए। होत जनम बहुरौ बन गए।
देखौ काम – प्रतापऽधिकाई। कियौ परासर बस रिषिराई।
प्रबल सत्रु आहै यह मार। यातैं संतौ, चलौ सँभार।
या विधि भयौ ब्यास-अवतार। सूर कह्यौ भागवत बिचार।।229।।