रे मन सुमिरि हरि हरि हरि -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग देवगंधार



           
रे मन, सुमिरि हरि हरि हरि !
सत जज्ञ नाहिंन नाम सम, परतीति करि करि करि।
हरि-नाम हरिनाकुस बिसारयौ, उठ्यौ बरि बरि बरि।
प्रहलाद-हित जिहिं असुर मारयौ, ताहि डरि डरि डरि।
गज-गीध-गनिका-व्‍याध के अध गए गरि गरि गरि।
रम-चरन-अं‍बुज बुद्धि-भाजन, लेहि भरि भरि भरि।
द्रौपदी के लाज कारन, दौरि परि परि परि।
पांडु-सुत के बिधन जेते, गए टरि टरि टरि।
करन दुरजोधन, दुसासन, सकुनि, अरि अरि अरि।
अजामिल सुत-नाम लीन्‍हैं, गए तरि तरि तरि।
चारि फल के दानि हैं प्रभु रहे फरि फरि फरि।
सूर श्री गोपाल हिरदै राखि धरि धरि धरि।।306।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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