हरि करिहै कलंकि अवतार -सूरदास

सूरसागर

द्वादश स्कन्ध

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राग बिलावल
कल्कि अवतार वर्णन




हरि-हरि-हरि-हरि सुमिरन करो। हरि चरनारबिंद उर धरौ।।
हरि करिहै कलंकि अवतार। जिहि कारन सो कहौ बिचार।।
कलि मैं नृप होइहै अन्याई। कृषी अन्न लैहै बरिआई।।
झूठे नर सौ लेहिं अँकोरि। लावै साँचे नर कौ खोरि।।
प्रजा न धर्म रत होइ न कोइ। बरन धर्म न पिछानै सोइ।।
दूरि तीरथनि स्रम करि जाहिं। जहाँ रहै तहँ कबहुँ न न्याहिं।।
जाकै गृह मैं प्रतिमा होइ। तिन तजि पूजै अनतै सोइ।।
ब्राह्मन पूछे जान्यौ जाइ। सन्यासी फिरै भेष बनाइ।।
गृही न अपनौ धर्म पिछानै। अतिथि आए को नहि सनमानै।।
दया, सत्य, संतोष नसाइ। दया, धर्म की रीति बिलाइ।।
फल सुधर्म कौ जानै सोइ। पै सुधर्म कौ करै न कोइ।।
पापनि कौ फल चाहै नाही। अह निसि पाप करत ही जाही।।
बरषा समय न बरषा होई। बिना अन्न दुख पावै लोई।।
दान देहिं तौ जस के काज। कलि न होइ पृथ्वीपति राज।।
मन इंद्रिय बस करै न लोग। ज्यौ त्यौ किन्हौ चाहै भोग़।।
सत संवत आयुः कलि होइ। सोऊ जीवै बिरला कोइ।।

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