हरि हरि,हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।
हरि-गुरु एक रूप नृप जानि। यामैं कछु संदेह न आनि।
गुरु प्रसन्न, हरि परसन होइ। गुरु कैं दुखित दुखित हरि जोइ।
कहौं सो कथा, सुनौ चित धार। कहै- सुनै सो तरै भव पार।
इंद्र एक दिन सभा मँझारि। बैठयौ हुतौ सिंहासन डारि।
सुर, रिषि , सब गंधर्वे तहँ आए। पुनि कुबेरहू तहाँ सिधाए।
सुर-गुरुहू तिहिं औसर आयौ। इंद्र न तिहिं उठि सीस नवायौ।
सुर-गुरु, जानि गर्व तिहिं भयौ। तहं तै फिरि निज आस्रम गयौ।
सुर-पति तब लाग्यौ पछितान। मैं यह कहा कियो अज्ञान।
पुनि निज गुर-आस्रम चलि गयौ। पै सुर-गुरु दरसन नहिं दयौ।
यह सुनि असुर इंद्र-पुर आइ। कियौ इंद्र सौं जुद्ध बनाइ।
इंद्र-सहित तब सब सुर भागे। आस्रम अपने सबहिनि त्यागे।
पुनि सब सुर ब्रह्मा पै जाइ। कह्यौ वृत्तांत सकल, सिर नाइ।