हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारबिंद उर धरौ।
हरि भजि जैसे नारदु भयौ। नारद व्यासदेव सौं कह्मो।
कहौ सौ कथा सुनौ चित धार। नीच-ऊँच हरि कै इकसार।
गंध्रब ब्रह्मा -सथा मँझारि। हँस्यों अप्सरा और निहारि।
कह्मौ ब्रह्मा, दासी -सुत होहि। सकुच न करी देखि तै मोहिं।
भयौ दासी-सुत ब्राह्मन- गेह। तुरत छाँडि़कै गंध्रव-देह।
ब्रह्मन गूह हरि के जन छाए। दासी-दास सेव-हित लाए।
हरि-जन हरि-चरचा जो करै। दासी -सुत सो हिदै घरै।
सुनत-सुनत उपज्यौ बैराग। कह्मौ, जाउँ क्यौ माता त्याग।
ताकी माता खाई कारै। सो मरि गइ साँप के मारै।
दासी-सुत बन-भीतर जाइ। करो भक्ति हरि-पद चित लाई।
ब्रह्म-पुत्र तन सजि सो भयौ। नारद यौ अपनैं मुख कह्मो।
हरि की भक्ति करै जो कोई। सूर नीच सौ ऊँच से होइ।।8।।