हरि हरि हरि सुमिरन नित करौ -सूरदास

सूरसागर

तृतीय स्कन्ध

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राग बिलावल
कपिलदेव-अवतार तथा कर्दम का शरीर-त्याग



हरि हरि हरि सुमिरन नित करौ। हरि को ध्यान सदा हिय धरौ।
ज्यौं भयौ कपिलदेव अवतार। कहौं सो कथा, सुनौ चित धार।
कर्दम पुत्र-हेत तप कियौ। तासु नारिहूँ यह ब्रत लियौ।
हरि-सौ पुत्र हमारैं होइ। और जगत-सुख चहैं न कोइ।
नारायन तिनकौं बर दियौ। मोसौं और न कोऊ बियौ।
मैं लैहौं तुम गृह अवतार। तप तजि, करौ भोग संसार।
दुहुँ तब तीरथ माहिं नहाए। सुंदर रूप दुहूँ जन पाए।
भोग-सामग्री जुरी अपार। बिचरन लागे सुख-संचार।
तिनके कपिलदेव सुत भए। परम सुभाग्य मानि तिन लए।
कर्दम कह्यौ तिन्है सिर नाइ। आज्ञा होइ, करौं तप जाइ।
अभिद अछेद रूपम म जान। जो सब घट है एक समान।
मिथ्या तनु कौ मोह बिसार। जाहु रहौ भावै गृह-वार।
करत इंद्रियनि चेतन जोइ। मम स्वरूप जानौ तुम सोइ।
जब मम रूप देह तजि जाइ। तब सब इंद्री-सक्ति नसाइ।
ताकौं जानि मग्न ह्वै रहै। देहऽभिमान ताहि नहिं दहै।
तन-अभिमान जासु नसि जाइ। सो नर रहै सदा सुख पाइ।
और जो ऐसी जानै नाहिं। रहै सो सदा काल-भय माहिं।
यह सुनि कर्दम बनहिं सिधाए। उहाँ जाइ हरि-पद चिए लाए।
हरि-स्वरूप सब घट यौं जान्यौ। ऊख माहिं ज्यौं रस है सान्यौ।
खोई तन, रस आतम-सार। ऐसी विधि जान्यौ निरधार।
यौं लखि, गहि हरि-पद अनुराग। मिथ्या तनु कौ कीन्यौ त्याग।
तनहिं त्यागि कै हरि-पद पायौ। नृप सुनि हरि-स्वरूप उर ध्यायौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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