बिधि मनहीं मन सोच परयौ।
गोकुल की रचना सब देखत, अति जिय माहिं डरयौ।
मैं बिरंचि बिरच्यौ जग मेरौ, यह कहि गर्ब बढ़ायौ।
ब्रज-नर नारि ग्वाल-बालक, कौनें ठाटि रचायौ।
वृंदावन, बट सघन वृच्छ तर, मोहन सबै बुलाए।
सखा सँग मिलि करि बन-भोजन, बिधि मन भ्रम उपजाए।
धेनु रहीं बन भूलि कहूँ ह्वै, बालक भ्रमत न पाए।
यातैं स्याम अतिहिं अतुराने, तुरत वहाँ उठि धाए।
बालक-बच्छ, हरे चतुरानन, ब्रह्म-लोक पहुँचाए।
सूरदास प्रभु गर्व बिनासन, नव कृत फेरि बनाए।।436।।