भक्तबछल श्री जादव राइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
सुभद्राविवाह


भक्तबछल श्री जादव राइ। भक्त काज हरि करत सदाइ।।
अर्जुन तीरथ करन सिधाए। फिरत फिरत द्वारावति आए।।
सुन्यौ बिचार करत बल येइ। दुर्जोधनहि सुभद्रा देइ।।
तब अर्जुन के मन यह आइ। याकौ मैं लै जाउँ दुराइ।।
भेस तापसी कौ तिन गह्यौ। चारि मास द्वारावति रह्यौ।।
बलदेव ताकौ नेवति बुलायौ। भोजन हेतु सो बलगृह आयौ।।
लख्यौ सुभद्रा इहि सन्यासी। राजकुवर कोउ भेष उदासी।।
मेरे मन में यह उत्साह। मेरौ या सँग होइ बिबाह।।
इक दिन सो हरि मंदिर गई। तहाँ भेट पारथ सो भई।।
देखि ताहि रथ ठाढ़ौ कियौ। हरि दुहुँ कौ हिरदै लखि लियौ।।
धनुष बान अपने तब दए। अर्जुन सावधान ह्वै लए।।
पारथ लै सो रथहि परायौ। रथ के तुरँगनि बेगि चलायौ।।
यह सुनि कै हलधर उठि धाए। तब हरि अर्जुन नाम सुनाए।।
बल कह्यौ तुम मन ऐसी आई। तौ तुम क्यौ कीनी न सगाई।।
हरि कह्यौ अबहु बुलावहु ताहि। भली-भाँति सौ करै विवाह।।
तब बल पारथ तुरत बुलायौ। सोधि महूरत लगन धरायौ।।
करि विवाह अर्जुन घर आए। 'सूरदास' जन मंगल गाए।। 4303।।

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