तब तै बहुरि न कोऊ आयौ।
वहै जु एक बेर ऊधौ सौ, कछु सदेसौ, पायौ।।
छिन छिन सुरति करति जदुपति कौ, परत न मन समुझायौ।
गोकुलनाथ हमारै हित लगि लगि, लिखि हू क्यौ न पठायौ।।
वहै बिचार करौ धौ सजनी, इतौ गहरु क्यौ लायौ।
‘सूर’ स्याम अब बेगि न मिलहू, मेघनि अंबर छायौ।। 4246।।