ब्रज की लीला देखि, ज्ञान बिधि के गयौ।
यह अति अचरज मोहिं, कहा कारन ठयौ ।।टेक।।
त्रिभुवन नायक भयौ, आनि गोकुल अवतारी।
खेलत ग्वालनि संग, रंग आनंद मुरारी।
घर-घर तैं छाकैं चलीं मासरोवर-तीर।
नारायन भोजन करै बालक संग अहीर।
व्यंजन सकल मंगाइ, सखनि के आगैं राखे।
खाटे मीठे स्वाद, सबै रस लै-लै चाखे।
रुचि सौं जेंवत ग्वाल सब, लै-लै आपुन खात।
भोजन को सब स्वाद लै, कहत परस्पर बात।
देखत गन-गंधर्व, सकल सुरपुर के बासी।
आपुस मैं सब कहत हँसत, येई अबिनासी।
देखि सबै अचरज भए, कह्यौ ब्रह्मा सौं जाइ।
जाकौं अबिनासी कहत, सो ग्वारनि संग खाइ।
यह सुनि ब्रह्मा चले, तुरत बृंदाबन आए।
देखि सरोवर सजल, कमल तिहिं मध्य सुहाए।
परम सुभग जमुना बहै, तहँ बहै त्रिविध समीर।
पुहुप ता-द्रुम देखि कै, थकित भए मति-धीर।