हम तौ इतनै ही सचु पायो।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, बहुरौ दरस दिखायौ।।
कहा भयौ जो लोग कहत है, कान्ह द्वारिका छायौ।
सुनिकै विरह दसा गोकुल की, अति आतुर ह्वै धायौ।।
रजक धेनु गज कंस मारि कै, कीन्हौ जन की भायौ।
महाराज ह्वे मातु पिता मिलि, तऊ न व्रज बिसरायौ।।
गोपी गोपऽरु नद चले मिलि, प्रेम समुद्र चढायौ।
अपने बाल गुपाल निरखि मुख, नैननि नीर बहायौ।।
जद्दपि हम सकुचे जिए अपने, हरि हित अधिक जनायौ।
वैसेइ ‘सूर’ बहुरि नँदनंदन, घर घर माखन खायौ।। 4296।।