खेलत स्याम पौरि कै बाहर, ब्रज लरिका संग जोरि।
तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी।
गावत, हांक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी।
अति पुलकित गदगद मुख बानी मन-मन महरि सिहानी।
माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी।
सांटी लिए दौरि भुज पकरयौ, स्याम लँगराई ठानी।
लरिकनि कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे।
मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे।
बदन उघारि दिखायौ त्रिभुवन, बनघन-नदी-सुमेर।
नभ-ससि-रवि मुख भीतर हीं सब सागर-धरनी-फेर।
यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि।
नैन उघारि, वदन हरि मूँद्यौ, माता न अवगाहि।
झूठैं लोग लगावत मौकौं, माटी मोहिं न सुहावै।
सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज लोगनि यह भावै।।253।।