बासुदेव की बड़ी बढ़ाई -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग मारु
भक्त-वत्‍सलता



             बासुदेव की बड़ी बढ़ाई।
जगत-विता जगदीस, जगत गुरु, निज भक्तनि की सहत ढिठाई।
भृगु की चरन राखि उर ऊपर, बोले बचन सकल-सुखदाई।
सिव-बिरंचि मारन कौं धाए, यह गति काहू देव न पाई।
बिनु बदलै उपकार करत हैं, स्‍वारथ बिना करत मित्राई।
रावन अरि कौ अनुज विभीषन, ताकौं मिले भरत की नाई।
बकी कपट करि मारन आई, सो हरि जू बैकुंठ पठाई।
बिनु दीन्‍हैं ही देत सूर-प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गुसाइँ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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