हरि हरि, हरि इरि सुमिरन करौ -सूरदास

सूरसागर

षष्ठ स्कन्ध

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राग बिलावल



हरि हरि, हरि इरि, सुमिरन करौ। आधे पलकहुँ जनि बिस्मरौ।
सुक हरि-चरननि कौं सिर नाइ। राजा सौं बौल्यौ या भाइ।
कहौं हरि-कथा, सुनौ चित लाइ। सूर तरौ हरि कै गुन गाइ।।1।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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