हरि हरि हरि सुमिरन करौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
रूक्मिणी-पत्रिका-प्राप्ति



हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनाबिंद उर धरौ ।।
हरि सुमिरन जब रुकमिनि करयौ। हरि करि कृपा ताहि तब बरयौ ।।
कहौ सो कथा सुनौ चित लाइ। कहै सुनै सो रहै सुख पाइ ।।
कुंडिनपुर को भीषम राइ। बिश्नु भक्ति कौ तिहिं चित चाइ ।।
रुक्म आदि ताके सुत पाँच। रूक्मिनि पुत्री हरि रँग राँच ।।
नृपति रुक्म सौ कह्या बनाइ। कुँवरि जोग बर श्री जदुराइ ।।
रुक्म रिसाइ पिता सौ कह्यौ। जदुपति ब्रज जो चोरत मह्यौ ।।
रूक्मिनि कौ सिसुपालहिं दीजै। करि विवाह जग मैं जस लीजै ।।
यह सुनि नृप नारी सौ कह्यौ। सुनि ताको अंतरगत दह्यौ ।।
रुक्म चँदेरी बिप्र पठायौ। ब्याह काज सिसुपाल बुलायौ ।।
सो बारात जोरि तहँ आयौ। श्री रुकमिनि के मन नहिं भायौ ।।
कह्यौ मेरे पति श्री भगवान। उनहिं बरौ कै तजौ परान ।।
यह निहचै करि पत्री लिखी। बोल्यौ बिप्र सहज इक सखी ।।
पाती दै कह्यौ बचन सुनाइ। हरि को दै कहियौ या भाइ ।।
भीषम सुता रुकमिनी बाम। ‘सूर’ जपति निसि दिन तुव नाम ।। 4167 ।।

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