जग-सुख पाइ मुक्ति लहै सोइ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
च्यवन ऋषि की कथा


 
सुकदेव कह्यौ, सुनौ हो राव। जैसो है हरि-भक्ति-प्रभाव।
हरि कौ भजन करै जो कोइ। जग-सुख पाइ मुक्ति लहै सोइ।
च्यवन रिषीस्वर बहु तप कियौ। ता सम और जगत नहिं बियौ।
बामी ताकौं लियो छिपाइ। तासौं रिषि नहिं देइ दिखाइ।
ता आस्रम स्रजात नृप गयौ। तहाँ जाइ कै डेरा दयो।
छाँड़ि तहीं सब राज-समाज। राजा गयो अखेटक-काज।
नृप-कन्या तहँ खेलन गई। रिषि-धग चमकत देखत भई।
पै तिहिं रिषि-दृग जाने नाहिं । खेलत सूल दए तिन माहिं।
रुधिर-धार रिषि आँखनि ढरी। नृप-कन्या सो देखत डरी।
सूल ब्यथा सब लोगनि भई। राजा कह्यौ, कहा भइ दई ।
तहँ के वासी नृपति बोलाइ। बूझयौ, तब तिन कही सुनाइ।
च्यवन रिषी -आस्रम इहि राइ। बिनती उनसौ कीजै जाइ।
नृप खोजत रिषि-आस्रम आयौ। रिषि-धग देखत बहुत डरायौ।
कह्मौ, कियौ किन ऐसौ काज? कन्या कह्यौ, सुनौ महराज।
मोतैं बिन जानैं यह भयौ। रिषि के दृगनि सूल हौं दयौ।
नृप मनहीं मन बहु पिछतायौ। रिषि सौ पुनि यह बचन सुनायौ।
महाराज, तुम तौ हौ साध। मम कन्या तैं भयौ अपराध।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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