जग-सुख पाइ मुक्ति लहै सोइ2 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
च्यवन ऋषि की कथा


 
या कन्या कौं प्रभु तुम बरौ। कटक-सूल किरपा करि हरौ।
लोग सकल नीके जब भए। नृप कन्या दे, गृह कौं गए।
रिषि समाधि हरि-चरन लगाई। कन्या रिषि-चरननि लौ लाई।
सुरपति ताकैं रूप लुभायौ। बहुरि कुवेर तहाँ चलि आयौ।
पैतिन तिहिं दिसि देख्यौ नाहिं। गए खिस्याइ दोउ मन माहिं।
चौदह बरष भए या भाइ। तब रिषि देखयौ सीस उठाइ।
हाड़-चाम तन पर रहि गए। कृपावंत रिषि तापन भए।
अस्विनि-सुत इहि अवसर आए। करि प्रनाम, यह बचन सुनाए।
जो कछु आज्ञा हमकौं होइ। छाँड़ि बिलंब, करै अब सोइ।
कह्यौ, हम जज्ञ-भाग नहिं पावत। बैद्य जानि हमकौ बहरावत।
रिषि कह्यौ मैं करिहौ जहँ जाग। दैहौ तुमहि अवसि करि भाग।
नृप-कन्या सौ रिषि यौं कह्मौ। तुव ऊपर प्रसन्न मै भयौ।
जद्यपि कछु अच्छा नहिं मेरे। तदपि उपाइ करौं हि तेरे।
दुहुँ मिलि तीरथ माहिं नहाए। सुंदर रूप दुहूँ जन पाए।
दासी सहस प्रगट तहँ भई। इंद्रलोक-रचना रिषि ठई।
तिय कौं सुख विधि दियौं। तासु मनोरथ पूरन कियौ।
तब स्रजात रानी सौं कही। जब तै कन्या रिषि कौ दई।
तब तै मै सुधि कछू न पाई। बिनु प्रसंग तहँ गयौ न जाई।
जग अरंभ करि, नृप तहँ गयौ। लखि रिषि-आस्रम बिस्मय भयौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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