नंद जसोदा सब व्रजवासी।
अपने अपने सकट साजिकै, मिलन चले अविनासी।।
कोउ गावत कोउ बेनु बजावत, कोउ उतावल धावत।
हरि दरसन की आसा कारन, विविध मुदित सब आवत।।
दरसन कियो आइ हरि ज कौ, कहत स्वप्न कै साँचौ।
प्रेम मगन कछु सुधि न रही अँग, रहे स्याम रंग राँची।।
जसो जैसी भाँति चाहिये ताहि मिले त्यो धाइ।
देस–देस के नृपति देखि यह, प्रीति रहे अरगाइ।।
उमँग्यी प्रेम समुद्र दुहुँ दिसि, परिमिति कही न जाइ।
‘सूरदास’ यह सुख सो जानै, जाके हृदय समाइ।। 4282।।