कौरवपति ज्यौं बन कौं गयौ। धर्मपुत्र बिरक्त पुनि भयौ।
बरनि सुनावौं ता अनुसार। सूत कह्यौ जैसे परकार।
भारतादि कुरूपति की जथा। चली पांडवणि की जब कथा।
बिदूर कह्यौ मति करौ अन्याइ। देहु पांडवनि राज बटाइ।
कुरुपति कह्यौ, धान मम खाइ। पांडु सुतनि की करत सहाइ।
याकौं ह्याँ तै देहु निकारि। बहुरि न आवै मेरे द्वारि।
बिदुर सस्त्र सब तबहिं उतारि। चल्यौ तीरथनि मुंड उघारि।
भारत के बीतैं पुनि आयौ। लोगनि सब वृत्तांत सुनायौ।
तब पूछयौ, कुरुपति है कहाँ। कह्यौ, पांडु-सुत-मंदिर जहाँ।
राजा सेव भलो बिधि करै। दंपति-आयसु सब अनुसरै।
बिदुर कह्यौ देखौ हरि-माया। जिन यह सकल लोक भरमाया।।284।।