अब वे बिपदा हू न रही।
मानस करि, सुमिरत है जब-जब मिलते तब तबहीं।
अपने दीन दास कैं हित लगि, फिरते सँग सँगही।
लेते राखि पलक गोलक ज्यौं, संतत तिन सबहीं।
रन अरु बन, बिग्रह डर आगैं, आबत जहौं तहीं।
राखि लियो तुमहीं जग-जीवन, त्रासनि तै सबहीं।
कृपा-सिंधु की कथा एक रस, क्यों करि जाति कहीं।
कीजै कहा सूर सुख-संपति जहँ जदुनाथ नहीं?।।283।।