कौरवपति ज्‍यौं बन कौं गयौ2 -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग बिलावल
राजा धृतराष्‍ट्र का वैराग्‍य तथा वनगमन




इहि माया सब लोगनि लूट्यौ। जिहिं हरि कृपा करी सो छूट्यौ।
इनके पुत्र एक सौ मुए। तिनहैं बिसारि सुखी ये हुए।
अब मैं उनकौं ज्ञान सुनाऊँ। जिहिं तिहिं बिधि बैराग्‍य उपाऊँ।
बहुरौ धर्म-पुत्र पैं आयौ। राजा देखि बहुत सुख पायौ।
करि सन्‍मान कह्यौ या भाइ। करी हमारी बहुत सहाइ।
लाखा-गृह तैं जरत उबारे। अरु बालापन तैं प्रतिपारे।
कौन कौन तीरथ फिरि आए ? बिदुर सकल वृत्तांत सुनाए।
बहुरि कह्यौ, हरि-सुधि कछु पाई ? कह्यौ, न कछु, रह्यौ सिर नाई।
बहुरौ कुरुपति कैं ढिग आए। पूछे समाचार सतिभाए।
कह्यौ, जुधिष्ठिर सेवा करत। तातें बहुत अनंदित रहत।
कह्यौं सुतनि-सुधि आवति कबहीं। कह्यौं, भावियै कैं बस सबहीं।
बिदुर कह्यौ, सत पुत्र तुम्‍हारे। पांडु-सुतनि सो सकल सँहारे।
तिनकैं गृह तुम भोजन करत।अरु पुनि कहत सुखी हम रहत।
धिक तुम, धिक या कहिबे ऊपर। जीवित रहिहौ कौ लौं भू पर।
स्‍वान-तुल्‍य है बुद्धि तुम्‍हारी। जूठनि काज सहत दुख भारी।
द्रौपदि के तुम बसन छिनाए। इनि तब राज बहुत दुख पाए।
इनकैं गृह रहि तुम सुख मानत। अति निलज्‍ज कछु लाज न आनत।
जीवनि आस प्रबल श्रुति लेखी। साच्‍छात सो तुममैं देखी।
काल अगिनि सबही जग जारत। तुम कैसे कैं जिअन बिचारत ?
आयु तुम्‍हारी गई सिराइ। बन चलि भजौ द्वारिकाराइ।
कुरुपति कह्यौ अंध हम दोय। बन मैं भजन कौन बिधि होइ ?
बिदुर कह्यौ, सेवा मैं करिहौं। सेवा करत नैंकु नहि टरिहौं।
अर्ध निसा तिनकौं लै गयौ। प्रात भए नृप बिस्‍मथ भयौ।
बूड़ि मुए, कै कहूँ उठि गए। तिनकैं सोच नृपति बहु तए।
उहाँ जाइ कुरुपति बल-जोग। दियौ छाँड़ि तन कौं संजोग।
गंधारी सहगामिनि कियौ। बिदुर भक्‍त तीरथ्‍-मग लियौ।
तिहिं अंतर नारद तहँ आए। नृप कौं सब वृत्तांत सुनाए।
नृप कै मन उपज्‍यौ बैराग। भजौं सूर-प्रभु अब सब त्‍याग।।।284।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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