हरि की लीला देखि नारद चकित भए ।
मन यह करत विचार गोमती तट गए ।।
अलख निरजन निराकार अच्युत अबिनासी ।
सेवत जाहि महेस सेस, सुर माया दासी ।।
धर्मस्थापन हेत पुनि, धारयौ नर औतार ।
ताकौ पुत्र कलत्न सौ, नहि संभवत पियार ।।
हरि कै पोडस सहस, आठ पतिवर्ता नारी ।
सबकौ हरि सौ हेत, सबै हरि जू की प्यारी ।।
जाकै गृह द्वै नारि है ताहि कलह नित होइ ।
हरि विहार किहिं करत, नैननि देखौ जोइ ।।
द्वारावति रिषि पैठि भवन, हरि जी के आए ।
आगे ह्वै हरि नारि सहित, चरननि सिर नाए ।।