अचंभौ इन लोगनि कौं आवै।
छाँड़ै स्याम-नाम-अभ्रित-फल, माया-विष-फल भावै।
निंदत मूढ़ मलय चंदन कौं, राख अंग लपटावैं।
मानसरोवर छाँड़ि हंस तट काग-सरोवर न्हावै।
पग तर जरत न जानै मूरख, घर तजि घूर बुझावै।
चौरासी लख जोनि स्वाँग धरि, भ्रमि भ्रमि जमहिं हँसाबैं।
मृगतृष्ना आचार-जगत जल, ता सँग मन ललचावै।
कहत जु सूरदास संतनि मिलि हरि जस काहे न गावै।।13।।