जनम-जनम-जब-जब -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

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राग बिलाबल



जनम-जनम-जब-जब, जिहिं-जिहिं जुग जहाँ-जहाँ जन जाइ।
तहाँ-तहाँ हरि चरन-कमल-कमल-रति सो दृढ़ होइ रहाइ।
स्रवन सुजस सारंग-नाद-विधि, चातक-विधि मुख नाम।
नैन चकोर सतत दरसन ससि, कर अरचन अभिराम।
सु‍मति सुरूप सँचै स्रद्धा-बिधि, उर-अंबुज अनुराग।
नित प्रति अलि जिमि गुंज मनोहर, उङत जु प्रेम-पराग।
औरौ सकल सुकृत श्रीपति-हित, प्रति फल-रहित सुप्रीति।
नाक निरै, सुख दुख सूर नहिं, जिहि की भजन प्रतीति।।12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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