रटति कृष्न गोविंद हरि हरि मुरारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग आसावरी
भीमासुरवध तथा कल्पवृक्ष आनयन



रटति कृष्न गोविंद हरि हरि मुरारी ।
भक्त भय हरन असुरतकारी ।।
षष्ठ दस सहस कन्या असुर बदि मैं, नींद अरु भूख अहनिसि बिसारी ।
प्रीति तिनकी सुमिरि भए अनुकूल हरि, सत्यभामा हृदय यह उपाई ।।
कल्पतरु देखिबे की भई साध मोहि, कृपा करि नाथ ल्यावहु दिखाई ।
सत्यभामा सहित बैठि हरि गरुड़ पर, भौमासुर नगर कौ तुरत धाए ।।
एक ही बान पाषान कौ कोट सब, हुतौ चहुँ ओर सो दियौ ढाए ।
गरुड़ चहुँ पास के नाग लीन्हे निगलि, जल बरषि अगिनि ज्वाला बुझाई ।।
स्वास के तेज सौ जल सकल सोषि लियौ, देखि यह लोग सब गए टेराई ।
करी हरि सख धुनि जग्यौ तब असुर सुनि, कोप करि भवन सौ निकसि धायौ ।।
देखि कै गरुड़ कौ लगी ता हृदय दव, कठिन तिरसूल सो गहि चलायौ ।
सचिव सिर टेकि तब कह्यौ निज नृपति सौ, नहीं तिहुँ भुवन कोउ सम तुम्हारे ।
जुद्ध कौ करत छाजत नहीं है तुम्है, सुनि महाराज अच्छत हमारे ।।

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