अविगत-गति कछु कहत न आवै -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग कान्‍हरो
सगुणोपासना


अविगत-गति कछु कहत न आवै।
ज्‍यौं गूँगै मीठे फल कौ, रस अंतरगत ही भावै।
परम स्‍वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।
रुप-रेख-गुन जाति जुगति-बिनु, निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातै, सूर सगुन-पद गावै।।।2।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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