सो हरि-भक्ति पाइ सुख पावै -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
राज अंवरीष की कथा


 

हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारविंद उर धरौ।
हरि-पद अंबरीष चित लायौ। रिषि-सराप तैं ताहि बचायौ।
रिषि कों तापै फेरि पठायौ। सुक नृप कौं यौं कहि समुझायौ।
अंबरीष राजा हरि-भक्त। रहै सदा हरि-पद अनुरक्त।
स्रवन-कीरतन-सुमिरन करै। पद-सेवन-अरचन उर धरै।
बंदन दासपनौ सो करै। भक्तनि सख्य-भाव अनुसरै।
काय-निवेदन सदा बिचारै। प्रेम -सहित नवधा बिस्तारै।
नौभी नेम भली विधि करे। दसमी कों संजम बिस्तरे।
एकादसी करै निरहार। द्वादसि पोषै लै आहार।
पतिव्रता ता नृप की नारी। अह-निसि नृप की आज्ञाकारी।
इंद्री सुख कौ दोऊ त्यागि। धरै सदा हरि-पद अनुरागि।
ऐसी बिधि हरि पूजे सदा। हरि-हित लावै सव संपदा।
राज-काज कछु मन नहिं धरै। चक्र सुरदसन रच्छा करै।
घटिका दौइ द्वादसी जानि। रिषि आयौ, नृपिकयौ सम्मान।
कह्यौ भोजन कीजै रिषिराइ। रिषि कहौ, आवत हौ मै न्हाइ।
यह कहिकै रिषि गए अन्हान। काल बितायौ करत स्नान।
राजा कह्यौ, कहा अब कीजै। द्विजनि कह्यौ, चरनोदक लीजै।
राजा तब करि देख्यौ ज्ञान। या बिधि होइ न रिषि-अपमान।
लै चरनौदक निज ब्रत साध्यौ। ऐसौ बिधि हरि कौ आराध्यौ।
इहिं अंतर दुरबासा आए। अंबरीष सौं बचन सुनाए।
सुनि राजा, तेरौ ब्रत टरौ। क्यौ करि तेरै भोजन करौ।
कह्यौ नृपति सुनियै रिषिराइ। मैं ब्रत-हित यह कियो उपाइ।
चरनोदक लै ब्रत प्ररिपारयौ। अब लौं अन्न न मुख मैं डारयो।
रिषि सक्रोध इक जटा उपारी। सो कृत्या भइ ज्वाला भारी।
जब नृप ओर धष्टि तिहिं करी। चक्र सुदरसन सो संहरी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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