देखो री सखि आजु नैन भरि, हरि के रथ की सोभा।
जोग, जज्ञ, जप, तप, तीरथ व्रत, कीजत है जिहि लोभा।।
चारु चक्र मनि खचित मनोहर, चंचल चँवर पताका।
सोभा छत्र ज्यौ ससि प्राची दिसि, उदय कियौ निसि राका।।
स्याम सरीर सुदेस पीत पट, सीस मुकुट उर माल।
जनु दामिनि घन रवि तारागन, प्रगट एक ही काल।।
उपजति छवि अति अधर सख मिलि, सुनियत सब्द प्रसंस।
मानहु अरुन कमल मंडल मैं, कूजत है कल हंस।।
मदन गुपालहि देखत ही अब, सब दुख सोक बिसारे।
बैठे हैं सुफलकसुत गोकुल लैन जु उहाँ सिधारे।।
आनंदित नर नारि नगर के, बदन बिमल जस गायौ।
'सूरदास' द्वारिका निवासी, प्राननाथ प्रभु पायौ।। 4164।।