हरि हरि हरि सुमिरौ सब कोई। हरि हरि सुमिरत सब सुख होई ।।
हरि हरि सुमिरयौ जब जिहिं जहाँ। हरि तिहि दरसन दीन्हो तहाँ ।।
हरि सुमिरन कालिंदी कीन्हौ। हरि तहँ जाइ दरस तिहि दीन्हौ ।।
पानिग्रहन पुनि ताकौ कियौ। सबै भाँति ताकौ सुख दियौ ।।
हरिहिं मित्रबिदा जब ध्यायौ। हरि तहँ जात बिलंब न लायौ ।।
करि विवाह ताकौ लै आए। तासु मनोरथ सकल पुजाए ।।
हरि चरननि सत्या चित दीन्हौ। ताक पिता परन यह कीन्हौ ।।
सात बैल ये नाथै जोई। सत्या ब्याह तासु सँग होई ।।
हरि तहँ जाइ तासु प्रन राख्यौ। धन्य धन्य सब काहू भाष्यौ ।।
ताके पिता ब्याह तब कीन्हौ। दाइज बहु प्रकार तिन दीन्हौ ।।
बहुरौ भद्रा सुमिरे हरी। गए तासु हित बिलँब न करी ।।
ऐसो है त्रिभुवन पतिराइ। ताके मन की आस पुराइ ।।
बहुरि लछमना सुमिरन कीन्हौ। ताहि स्वयंवर मैं हरि लीन्हौ ।।
पाँचौ नारि ब्याहि घर आए। ‘सूरदास’ जन मंगल गाए ।। 4192 ।।