इती बात तब तै न कही री।
कितिक बात सुरतरु प्रसून की, जा कारन तू रूठि रही री।।
परमुख स्वमुख जनाइ न दीन्हो, बिनु काजै रिस देह दही री।
तेरौ सौ सुनि सतिभामा मैं, मन बच यह सुधिहूँ न लही री।।
सूनौ निपट अकेली मदिर, चंदकला जनु राहु गही री।
तुव बियोग की पीर कठिन अति, सु कहि ‘सूर’ क्यौ जाति सही री।। 4193।।