जाकौं ब्यास बरनत रास -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग
श्रीकृष्ण-विवाह-वर्णन


जाकौं ब्यास बरनत रास।
है गंधर्बं बिवाह चित दै, सुनौ बिबिध बिलास।।
कियौ प्रथम कुमारिकनि ब्रत, धरि हृदय बिस्‍वास।
नंद-सुत पति देहु देबी, पूजि मन की आस।।
दियौ तब परसाद सबकौं, भयौ सबनि हुलास।
मिहिर-तनया-पुलिन-बर तर, बिमल जल उछ्वास।।
धरी लग्‍न जु सरद निसि की, सोधि करि गुरु रास।
मोर मुकुट सुमौर मानौ, कटक कंगन-भास।।
वेनु-धुनि सुनि स्रवन धाईं, कमल-बदन-प्रकास।
रुप प्रति-प्रति रुप कीन्‍हे, भुजा अंसनि बास।।
अधर-मधु मधुपरक करि कै, करत आनन हास।।
फिरत भाँवरि करत भूषन, अग्‍नि मनौ उजास।।
नारि-दिवि कौतुकहिं, आई छांडि सुत-पति-पास।
जिय परी ग्रँथि कौन छोरै, निकट ननद न सास।।
वरषि सुरपति कुसुम अंजुलि, निरखि त्रिदस अकास।
लेत या रस-रास कौ रस, रसिक सूरजदास।।1071।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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