सुभट साल्व करि क्रोध हरि पुरी आयौ3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू
शाल्ववध



सारथी पाइ रुख दये सटकारि हय, द्वारिकापुरी जब निकट आई।
साल्व के भटनि लखि कटक भगवान कौ, आपने नृपति सौ कह्यौ जाई।।
सुनि सो भगवान कै आइ सनमुख भयौ, सारथी ओर बरछी चलाई।
ताहि आवत निरखि स्याम निज साँग़ सौ, काटि करि साल्व की सुधि भुलाई।।
बहुरि तिहिं कोपि निज बान संधान करि, धनुष भगवान को काटि डारयौ।
टूटतैं धनुष के सब्द आकास ग़यौ, साल्व निज जिय समुझि यौ उचारयौ।।
रुकमिनी माँग सिसुपाल की तुम हरी, बहुरि तिहिं राजस मैं सँहारौ।
जाइहौं अब कहाँ दाँव लैहौ इहाँ, छाँड़ि सो बिचार आयौ सँभारौ।।
कह्यौ भगवान सुनि साल्व जे सूर नर त नहीं करत निज मुख बड़ाई।
जे करै, सूर तिनको नहीं जानिये, भापि यह गदा ताको चलाई।।
गदा कै लगत ही गयो सो गुप्त ह्वै, धारि धावन रूप यह सुनायौ।
कह्यो बसुदेव जगदीस आसचर्ज यह, तुम अछत साल्व मोहि बाँधि लायौ।।
बहुरि करि कपट वसुदेव तहँ प्रकट किया, कह्यौ तिन नाथ मैं दुखित भारी।
साल्व करबार ले स्याम के देखतै, डारि दयौ सीस ताको उतारी।।
लख्यो भगवान करि कपट इन यह कियो, तासु माया तुरत हरि निवारी।
भागि निज पुर कह्यौ स्याम पहिलै पहुँचि, खैचि कै गदा ता सीस मारी।।
गदा जुद्ध साल्व कीन्हौ बहुत बेर लौ, बहुरि हरि साँग ताकौ चलाई।
लगत ताकै गए प्रान बाके निकसि, सुरनि आकास दुंदुभि बजाई।।
सीस ताकौ बहुरि काटि करवार सौ, मगर सम समुद्र मैं डारि दीन्हौ।
‘सूर’ प्रभु रहै ता ठोर दिन औ कछु, मारि दतवक्र पुर गवन कीन्हौ।। 4221 ।।

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