व्रज के निकट जाइ फिरि आयौ।
गोपी-नैन-नीर-सरिता तै, पार न पहुँचन पायौ।।
तुम्हरी सीख सु नाव बैठि कै, चाहत पार गयौ।
ज्ञान ध्यान व्रत नेम जोग कौ, सँग परिवार लयौ।।
इहि तट तै चलि जात नैकु उत, विरह पवन झकझोरै।
सुरति वृच्छ सो मारि बाहुबल, टूक टूक करि तोरै।।
हौ हूँ बूड़ि चल्यौ वा गहिरै, केतिक बुड़की खाई।
ना जानौ वह जोग बापुरौ, कहँ धौ गयौ गुसाई।।
जानन हुतौ थाह वा जल कौ, औ तरिवे की धीर
“सूर” कथा जू कहा कहौ उनकी परयौ प्रेम की भीर।। 4097।।