छिन गोपिन के पग परै, धन्य तुम्हारौ नेम।
धाइ धाइ द्रुम भेटई ऊधौ छाके प्रेम।।
धनि गोपी, धनि ग्वाल, धन्य ये सब व्रजवासी।
धनि यह पावन भूमि, जहाँ बिलसे अविनासी।।
उपदेसन आयौ हुतौ, मोहिं भयौ उपदेस।
ऊधौ जदुपति पै चले, किए गोप कौ भेष।।
भूल्यौ जदुपति नाम, कह्यौ गोपाल गुसाई।
एक बेर व्रज जाहु, देहु गोपिनि दिखराई।।
वृंदावन सुख छाँड़ि कै, कहाँ बसे हौ आइ।
गोबरधन प्रभु जानि कै, ऊधौ पकरे पाइ।।
ऊधौ व्रज कौ प्रेम नेम, वरनौ सब आई।
उमग्यौ नैननि नीर बात, कछु कही न जाई।।
‘सूर’ स्याम भूतल परे, नैन रहे जल छाइ।
पोंछि पीत पट सौ कह्यौ भले, आए जोग सिखाइ।।4095।।